जीवधारियों के लक्षण - FEATURES OF LIVING BEINGS - Notes



FEATURES OF LIVING BEINGS

जीवधारियों के लक्षण 



रासायनिक क्रियाएँ जीवों में कुछ विशिष्ट क्रियाओं का प्रदर्शन करती है, जिन्हें जैविक क्रियाओं का नाम दिया जाता है ये क्रियाएँ श्वसन, पोषण, उत्सर्जन, प्रचलन, प्रजनन इत्यादि के रूप में दिखाई देती हैं। अतः जीवन एक निश्चित संगठन (Organization) है, जो कुछ रासायनिक पदार्थों की सक्रियताओं के कारण उत्पन्न होता है।

जैविक क्रियाएँ

(Life Processes)


·             इस प्रकार वर्णित आण्विक संरचना या व्यवस्था के आधार पर जीवों में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते है-

·             जीवों में कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। इस कारण जीवों की आण्विक व्यवस्था मूलतः कार्बनिक प्रकृति की होती है। 

जल का महत्व  

 

·             कोशिका के अन्दर की वस्तुएं पानी में ही घुली रहती हैं। 

·             जीवों या कोशिका के अन्दर के छोटे अणु पानी को त्यागकर ही आपस में मिलते हैं और वृहद् अणुओं का निर्माण करते हैं उपर्युक्त सभी महत्वों के अलावा जीवन की उत्पत्ति भी जल में ही हुई है।

 

            शर्करा का महत्व-


·        शरीर को सुचारु रूप से कार्य करने के लिए रुधिर में शर्करा की निश्चित मात्रा की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि यह शरीर में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है।

·             इसका निर्माण हरे पौधे करते हैं और दूसरे जीव इनसे प्राप्त करते हैं।

·             शर्करा के अणु ही आपस में मिलकर सेल्युलोज बनाते हैं, जो जीवों (विशेषकर) पौधों का महत्वपूर्ण अवयव है।

·             मस्तिष्क की कोशिकाएँ इसके बिना कार्य नहीं कर सकतीं।

·             कोशिकाओं में होने वाली इन क्रियाओं को मुख्य रूप से दो समूहों में वर्गीकृत करते है।

·      जीवित कोशिकाओं में यह ऊर्जा हमेशा ऊष्मागतिकी (Thermodynamics) के दोनों नियमों के आधार पर दूसरे रूपों में स्थानान्तरित या पुनरुत्पादित होती रहती है और इसी कारण जैविक क्रियाएँ परिलक्षित होती रहती हैं। जब ये क्रियाएँ रुक जाती हैं, तो जीव निर्जीव में रूपान्तरित हो जाता है। अर्थात् जैविक क्रियाएँ ऊर्जा रूपान्तरण या पुनरुत्पादन के कारण ही आस्तित्व में है।

·             जीवों में ऊर्जा के रूपान्तरण का सबसे बड़ा उदाहरण हरे पौधों द्वारा प्रकाश ऊर्जा का रासायनिक ऊर्जा में पौली परिवर्तन है। हरे पौधे सूर्य की प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करके इसे रासायनिक ऊर्जा (भोज्य पदार्थों के रूप) में बदल देते हैं। यहाँ पर ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम जिसक अनुसार, ऊर्जा ही पैदा की जा सकती है, और नष्ट की जा सकती है, केवल उसका रूप बदल जाता है, का पालन होता है। 

·             शरीर में सबसे महत्वपूर्ण स्रोत ऊर्जा को पैदा करने का क्रेव-चक्र के रूप में होता है। यह चक्र सूत्र कणिकाओं में पूरा होता है।

·             जरवों में इस प्रकार ऊर्जा के पुनरुत्पादन तथा स्थानान्तरण में ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम का भी पालन किया जाता है। इस नियम के अनुसार, जब एक ऊर्जा दूसरे में रूपान्तरित होता है, तो उसका कुछ हिस्सा अनुपयोगी ऊर्जा के रूप में निकल जाता है। अर्थात् ऊर्जा का 100 कभी भी रूपा रूपान्तरित नहीं करता और यह अनुपयोगी ऊर्जा शरीर की गर्मी को बढाती है। ऊर्जा का स्थानान्तरण हमेश उच्च ऊर्जा स्तर से निम्न ऊजा स्तर की ओर होता है। इस प्रकार ऊर्जा के स्थानान्तरण में निकली ऊष्मा को एण्ट्रापी कहते है।

·             तीनों क्रियाओं-खुले तन्त्र की प्रकृति, स्थिर अवस्था और समांग अवस्था (या समस्थापन) के कारण जीवन बिना रुके चलता रहता है और जब इनका सन्तुलन बिगड़ता है, तो जीव निर्जीव अवस्था में जाता है। अतः ये तीनों क्रियाएँ ही जैविक क्रियाओं के कारक हैं।

·             शरीर की कोशिकाओं की वृद्धि एवं गुणन के आधार पर बहुकोशिकीय जन्तुओं की वृद्धियों को निम्नलिखित तीन समूहों में रखते हैं

 

·             कोशिकीय वृद्धि कोशिका का आकार में बढना़ कोशिकीय वृद्धि कहलाती है।

·             सामान्य जीवों की वृद्धि के समय जीवों के आकार-प्रकार में वृद्धि तभी होती जब इनके शरीर की 

·             कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है। कोशिकाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी शरीर में उपस्थित कोशिकाओं के प्रजनन अर्थात् कोशिका विभाजन के द्वारा होती है। इस कार्य के लिए कोशिकाओं में समसूत्री विभाजन होता है, जिससे जनक कोशिका के ही समान संतति कोशिका बनती है। संतति कोशिका तब तक विभाजित नहीं होता है, तब तक यह स्वयं वृद्धि करके जनक कोशिका का आकार ग्रहण नहीं कर लेती। कोशिकाओं के स्वयं बढ़ने की क्रिया को ही कोशिकीय वृद्धि  कहते हैं। 

 

अनुकूलन (Adaptation)

 

·             सभी जीवों में यह विशेषता पायी जाती है कि वे अपने आप को वातावरण के अनुसार परिवर्तित कर लेते हैं, जिसके कारण उस वातावरण में उन्हें रहने के लिए आसानी होती है, जीवों के इस गुण को अनुकूलन कहते है।

·             जब किसी पौधे को जमीन के समान्तर रख देते हैं, तो उसका तना मुड़कर ऊपर सूर्य के प्रकाश की ओर बढ़ने लगता है इस क्रिया को प्रकाशानुवर्तन कहते हैं। इसी प्रकार पौधे गुरुत्वानुवर्तन (जड़ को भूमि की ओर बढ़ना), जलानुवर्तन (जड़ का जल की ओर बढ़ना),तापानुवर्तन और स्पर्शानुवर्तन अनुकूलनों को प्रदर्शित करते हैं।

·        पक्षियों के पंजें और चोंच उनके बैठने के स्थान और भोजन के अनुरूप होते हैं।

·       रात को खिलने वाले पौधे सुगन्ध युक्त होते हैं जो कीट परागण के लिए एक अनुकूलन है।

·       मच्छरो के अण्डों के लिए मानव रुधिर का प्रोटीन उपयुक्त होता है, इस कारण मादा की सूॅड मानव रक्त चूषण के लिए अनुकूलित होती है, जबकि नर फलों के रस पर निर्भर रहता है।

 

 

 


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